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मक्का, मंडी और GM MAIZE का मायाजाल
नईदिल्ली-
भारत में मक्का केवल एक अनाज नहीं, बल्कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था, पशु आहार उद्योग, स्टार्च, बायो-ईंधन और खाद्य सुरक्षा का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है। ताज़ा आँकड़ों के अनुसार, 2024-25 में भारत में मक्का की खेती का रक़बा लगभग 120.17 लाख हेक्टेयर तक पहुँच गया, जो एक दशक पहले की तुलना में लगभग दोगुना है। सिर्फ़ खरीफ़ 2024 सीज़न में ही यह 84.3 लाख हेक्टेयर तक पहुँच गया। बिज़नेस लाइन की 23 जुलाई 2025 की रिपोर्ट के अनुसार मक्के का उत्पादन पिछले वर्ष की तुलना में 15% बढ़कर 422.81 लाख टन हो गया है। यह वृद्धि पशु-चारा, स्टार्च और इथेनॉल के तेज़ी से बढ़ते बाज़ार की वजह से हुई है। देश में पशुपालन क्षेत्र हर साल 8-10% की दर से बढ़ रहा है। इसके साथ ही सरकार अगस्त 2025 तक E27 यानी 27% इथेनॉल मिश्रण का मानक लागू करने की तैयारी में है।
इन्हीं कारणों से विगत कुछ वर्षों में मक्का के आयात में तेज़ी आ गयी है। 2024-25 में भारत ने 9.7 लाख टन मक्का आयात किया, जो पिछले वर्ष की तुलना में छह गुना अधिक है। यह तब है जब इसका घरेलू उत्पादन रिकॉर्ड स्तर पर है। अब सवाल ये उठता है कि जब हम खुद इतना मक्का उगा रहे हैं, तो अचानक आयात की ज़रूरत क्यों? आज कई संगठनों को ऐसा लग रहा है कि विदेशों से जीएम मक्के के आयात से ही अलग अलग क्षेत्रों में मक्के की कमी के संकट से निजात मिल सकती है। जबकि सच्चाई इससे बिलकुल इतर है। इकोनॉमिक टाइम्स के अनुसार, हाल ही में नीति आयोग (NITI Aayog) के एक पेपर की चर्चा खूब हुई जिसमें अमेरिकी GM मक्के और सोयाबीन के आयात का सुझाव था हालाँकि बाद में इसे अपरिहार्य कारणों से वापस ले लिया गया । इससे यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि सरकार अभी भी GM फसलों को अपनाने में सशंकित है और जैव-सुरक्षा को प्राथमिकता दे रही है। दूसरी ओर, पंजाब कृषि विश्वविद्यालय में GM मक्का के फील्ड ट्रायल (BRL-I और BRL-II चरण) की शुरुआत हो चुकी है। इन शोधों में हर्बिसाइड-प्रतिरोधी और कीट-प्रतिरोधी दो प्रकारों का परीक्षण हो रहा है। पंजाब कृषि विश्वविद्यालय ने स्पष्ट किया है कि ये परीक्षण वाणिज्यिक कारणों के लिए नहीं, बल्कि केवल वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए हैं जिसका उद्देश्य सिर्फ प्रभावशीलता का मूल्यांकन करना है और ये पूरी तरह बायोसेफ्टी मानकों के अंतर्गत नियंत्रित हैं।
GM मक्का के समर्थन में अक्सर कहा जाता है कि यह कीट-प्रतिरोधी है, पैदावार बढ़ाता है और रसायन के उपयोग को कम करता है। लेकिन वास्तविकता इसकी जटिलता और जोखिम को उजागर करती है। GM बीज पेटेंट आधारित होते हैं, जिससे किसान को हर साल विदेशी कंपनियो से नकदी पर नया बीज खरीदना पड़ता है, जो उनके लिए भारी पड़ सकता है। यहाँ ये बात भी ध्यान रखने की है कि जब तकनीकी नियंत्रण बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पास हो, तो किसान की ज़्यादा निर्भरता और मंडी संबंधी अनिश्चितता और बढ़ जाती है। इसपर पर्यावरणीय और स्वास्थ्य प्रभावों पर दीर्घकालिक आंकड़े सीमित है। कई अंतरराष्ट्रीय अध्ययन बताते हैं कि GM फसलों का बड़े पैमाने पर उपयोग जैव विविधता को नुकसान पहुँचा सकता है और मिट्टी की गुणवत्ता को प्रभावित कर सकता है ।
अफ्रीका और यूरोप के कई देशों ने उपभोक्ता विरोध और पर्यावरणीय जोखिमों के चलते GM मक्का के आयात या खेती पर रोक लगाई है। सवाल है कि जिस जीएम् मक्के को दूसरे देश अपनाने से हिचक रहे हैं, क्या भारत को उसे अपनाने में जल्दबाज़ी करनी चाहिए? भारत में पहले से ही कई गैर-GM हाइब्रिड किस्में विकसित की जा चुकी हैं, जो उच्च पैदावार और रोग-प्रतिरोध क्षमता रखती हैं। भारतीय मक्का अनुसंधान संस्थान (IIMR) और विभिन्न राज्य कृषि विश्वविद्यालयों ने ऐसी किस्में तैयार की हैं जो स्थानीय जलवायु और मिट्टी के लिए उपयुक्त हैं। किसानों ने भी पिछले दो वर्षों में अच्छे दाम मिलने पर सोयाबीन और दालों से मक्का की ओर रुख किया है, और यह बदलाव बिना GM तकनीक के संभव हुआ है।
हमें ये समझना होगा कि जीएम् मक्के का आयात ही मक्के की मांग को पूरा करने का एकमात्र समाधान नहीं है। अगर हम आज GM मक्का आयात के रास्ते पर चलते हैं, तो यह सिर्फ़ एक फसल का मामला नहीं रहेगा। यह मिसाल बन जाएगा कि अंतरराष्ट्रीय दबाव हमारी कृषि नीतियों को मोड़ सकता है। भारत का कृषि क्षेत्र केवल GDP का हिस्सा नहीं है, यह हमारी खाद्य सुरक्षा, हमारी संस्कृति और हमारे भविष्य की गारंटी है। GM मक्का के मकडजाल में फँसना उस भविष्य को अनिश्चितता के हवाले करना होगा। आज हमारे पास स्थानीय अनुसंधान, गैर-GM हाइब्रिड और जैविक पोषण संवर्धन जैसे अनेकों विकल्प हैं । ज़रूरत है इन्हें समर्थन देने की, न कि बाहरी दबाव में GM बीजों को अपनाने की।
रिपोर्टर
The Reporter specializes in covering a news beat, produces daily news for Aaple Rajya News
Aishwarya Sinha